आर्य समाज का परिचय
महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना 1824 में मुंबई नगर में की थी । “आर्य” शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, श्रेष्ठ अर्थात् मनुष्यों का ऐसा समूह जिसमे अत्यंत ही श्रेष्ठ गुणों का समावेश हो । अर्थात मनुष्यों का ऐसा वर्ग जो शारीरिक, मानसिक एव सामाजिक दृष्टि से अन्यो मनुष्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ हो । जिस समाज में किसी प्रकार का अंधविश्वास न हो, जात-पात न हो । मानव सभ्यता में जातपात एक किस्म से कलंक है, कोढ़ है । इस बुराई के रहते हम कभी भी एक स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं कर सकते ।
कर्म
महर्षि दयानन्द मनु महाराज का उद्धरण देते हुए कहते है कि आदमी की पहचान उसके कर्म से होनी चाहिए न की उसके जन्म से । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति विद्वान उसका आचरण श्रेष्ठ वह विद्या का प्रकाश समाज में फैला रहा है तो वह ब्राहमण कहलाने का अधिकारी है । यदि कोई व्यक्ति चाहे उसका जन्म किसी भी परिवार में हुआ है उसका आचरण उसकी शिक्षा अधम कोटि की है तो उसे हम ब्राहमण नहीं कह सकते चाहे वह ब्राहमण कुल में जन्मा हो द्विज इसकी पुष्टि गीता में भी होती है जिसमे लिखा है “जन्मना जायते शुद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।” अर्थात बच्चा जब जन्म लेता है तो सूद्र होता है बड़ा होने पर उसके कर्म के अनुसार उसकी पहचान ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र के रूप में होती है । गुरु द्रोणाचार्य ने ब्राहमण होते हुए भी क्षत्रियो की तरह जीवन व्यतीत किया । इसी प्रकार विशवामित्र ने क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मणों जैसा जीवन व्यतीत किया ।
अन्तर्जातीय विवाह
इस प्रकार प्राचीन साहित्य का अवलोकन करने से पता चलता है कि जातपात की समस्या इतनी गम्भीर नहीं थी जितनी की आज के युग में है । इस सामाजिक बुराई ने हमारी जडो को खोखला कर दिया है । हम किसी व्यक्ति से केवल इसलिए घृर्णा करते है क्योंकि वह दूसरी जाती का है । जबकि घृर्णा कर कारण उसकी जाती नहीं उसके कर्म होने चाहिए । इसलिए महर्षि दयानन्द ने कहा है कि यह बुराई समाज से समाप्त होनी चाहिए इसलिए उन्होंने अन्तर्जातीय विवाहो को प्रोहत्साहन दिया ।
भेद-भाव का अन्त
इसी कारण से आर्य समाज मंदिर में अन्तर्जातीय विवाहों का आयोजन किया जाता है । ताकि इस बुराई को समूल खत्म किया जा सके । सिखों के दसवे गुरु गोविन्द सिंह ने कहा था कि यदि हमे समाज को स्वस्थ बनाना है तो रोटी और बेटी दोनों के भेद को समाप्त करना होगा । आज रोटी का भेद तो काफी हद तक समाप्त हो चूका है हम किसी के भी साथ बैठकर भोजन ग्रहण कर लेते है । जगह-जगह खुले होटलों व ढाबो ने इस भेद को समाप्त करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । लेकिन दूसरी जाती में विवाह की बात सुनकर हम न केवल बेचैन हो उठते है अपितु जान लेने पर उतारू हो जाते है ।
विकसित समाज
आज के इस समय व विकसित समाज में इस तरह की गली-सड़ी परम्पराओं के रहते वास्तव में हम एक स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं कर सकते । हम एक नेता के गुण नहीं अपितु जाती देखकर वोट देते है । इससे बड़ी दुखद बात और क्या हो सकती है ? आईए इस बुराई को समाप्त करने के लिए हमे निश्चित रूप से अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोहत्साहन देना होगा ।